भारती गुप्ता की सोशल मीडिया पोस्ट से :नैहर से निर्वासित बेटियाँ

श्रीमती भारती गुप्ता का पारिवारिक परिचय
शैक्षणिक योग्यता: श्रीमती भारती गुप्ता ने एम.ए. और बी.एड की शिक्षा प्राप्त की है।
व्यवसाय: वे एक गृहिणी हैं, जो परिवार की देखरेख में सक्रिय भूमिका निभाती हैं।
पुत्र: उनका बेटा उच्च शिक्षा हेतु प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है।
पिता: श्री किशन गुप्ता बर्तन के थोक व्यापारी थे। उन्होंने इस क्षेत्र में प्रतिष्ठा अर्जित की।
भाई: वर्तमान में उनके भाई पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाते हुए बर्तन का व्यापार संभाल रहे हैं।
पति: उनके पति एक बैंक में अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।

कानपुर: 2 नवम्बर 2025
श्रीमती भारती गुप्ता की सोशल मीडिया पोस्ट कविता में नैहर से निर्वासित बेटियों की कथा को चित्रित किया गया है। बूढ़ी बुआ की उपस्थिति और आँगन की तुलसी की अनुपस्थिति को दर्शाते हुए, यह दिखाया गया है कि कैसे पीपल का उग आना एक अनचाहा परिवर्तन है। बेटियाँ, जो कभी अपने घर में अधिकार से रहती थीं, अब अपमान और निर्वासन का सामना कर रही हैं। सप्तपदी के सात पग की याद उन्हें घर की देहरी पर ऊँचा उठाते हैं, जबकि वे अपनेपन की आस में डूब जाती हैं। इस अपमान के चलते, उनकी आत्मा धीरे-धीरे मरती जाती है, और वे न कोयला होती हैं न राख। अंत में, वे अपने घर की दहलीज़ पर भी संतोष का हुनर सीख लेती हैं, लेकिन यह बदलाव एक भारी मनोभाव को दर्शाता है। कविता में सावन की बारिश के माध्यम से अनचाहे बदलावों का संकेत दिया गया है।

नैहर से निर्वासित बेटियाँ
बूढ़ी  होती हुई बुआ,
आँगन की तुलसी नहीँ होतीं
वो उसी  घर में पड़ी
किसी दरार का,छत का 
अनचाहा उग आया 
पीपल हो जाती हैं
जो पूज्य भी है और भय भी देता है
बस दूर से हरियाली बाँट देती हैं
जड़ों से जुड़े मोह का 
आकार उन्हें धीरे धीरे 
तुलसी के पत्ते से ,न जाने कब 
बढ़ाकर पीपल के पत्ते में बदल देता है
जिसकी जगह आँगन नहीं
दूर पड़ा कोई एकान्त थान हो जाता है
सप्तपदी के सात पग
न जाने कब  घर की देहरी 
बड़ी ऊँची कर देते हैं 
भाँवरों की रस्म में गोते खाती
अपनेपन की आस लिये
गहरे डूब ही जाती हैं ,
अपने निर्वासन का छोर खोजते हुए,
अवसर पर आना,
बिन बुलाये  अपमान होता है
की सीख आँचल के 
खूँट में बाँधने के साथ ही विदा लेती हैं
नहीं तो  कानों के कनखल में 
इतने खल वचन आ गिरते है
कि शिव की गङ्गा और चन्द्रमा भी
शीतल न कर पाता उन्हें
इस   अपमान की 
अन्तराग्नि मे सुलगतीं 
धीरे धीरे रोज़  मरतीं वो,
न कोयला होतीं हैं न राख
कोई वीरभद्र उनका प्रतिशोध नहीं लेता
मैनाक सागर में डूब जाता
उनके शक्ति पीठ भी नहीं होते
बुआ भाग भतीजी आई की
कहावत का मर्म बाँच ही नहीं पातीं
उसी आँगन में अधिकार से 
कुछ लेने को लड़ने वालीं
कलेजे का टुकड़ा बनी बेटियाँ
विदा लेने के बाद 
राखी दूज की डोर निर्बल होते
ब्याह और तेरहवीं तक
शेष हो जातीं है
छप्पन भोग की प्रेमिन 
एक दिन   उस दहलीज़ के
सादे जल में भी
सन्तुष्ट होने का हुनर सीख लेतीं हैं
बड़ा भारी है आँगन की 
तुलसी से छत की दरार का पीपल होना
सावन की बारिश कितना कुछ 
अनचाहा उगा देती है।
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