बचपन में जब से होश सम्भाला दुनिया के सबसे बड़े शहर के रूप में मैने कानपुर का नाम सुना
जब बड़ा हुआ तब दुनियाँ के सबसे गन्दे शहर के रूप में मैंने कानपुर का नाम जाना
साइकिल पर रेल बाजार से लेकर दर्शनपुरवा और अरमापुर इस्टेट तक मटरगश्ती की
मृदुता और गंवई हेकड़ी का अद्भुत मिश्रण है कानपुर
हटिया का लाला सुबह अंगौछा और गंगाजली लेकर आज भी पैदल गंगा स्रान करने जाता
कम्पनी बाग की पत्ती-पत्ती स्वतन्त्रता के इतिहास का लहराता हुआ जीवन्त परचम है
Anoop Shukla3 घंटे · कानपुर की ठसक है कि वाह

बचपन में जब से होश सम्भाला, दुनिया के सबसे बड़े शहर के रूप में मैने कानपुर का नाम सुना। जब बड़ा हुआ तब दुनियाँ के सबसे गन्दे शहर के रूप में मैंने कानपुर का नाम जाना। जब छात्र के रूप में कानपुर की गलियों में घूमा-भटका, अपनी साइकिल के दो पहियों पर रेल बाजार से लेकर दर्शनपुरवा और अरमापुर इस्टेट तक की सड़कों पर मटरगश्ती की. तब जाना कि आप चाहे जितने उसके अपने हो. यह शहर अचानक अपनी तस्वीर किसी के सामने नहीं खोलता। यह धीरे-धीरे आदमी के अन्दर उगता है, दरख्त की तरह। कानपुर जव किसी को आदर और प्यार देने के लिए विछता है, तव गंधफूल की तरह विछता है, हरसिंगार हो जाता है। लेकिन जब किसी पर अपना आक्रोश विखेरता है, विफरता है, तब चटकते सूरज की तरह विफरता है। यह कानपुर की परम्परा है। मृदुता और गंवई हेकड़ी का अद्भुत मिश्रण है कानपुर। इस हेकड़ी को जीने के लिए कानपुर का आदमी कई बार पूरे जीवन भर तकलीफ उठाता है, जबकि बहुत मामूली में फेरबदल के साथ ही उसका जीवन संघर्ष काफी कुछ आसान भी हो सकता है, लेकिन नहीं वह बदलता नहीं, बदलना चाहता नहीं, अपनी हेकड़ी जीने में ही सुख पाता है । हर शहर की अपनी हेकड़ी अथवा ठसक होती रहेगी, पर कानपुर की ठसक है कि वाह ! यह शहर कभी नहीं बदल सकता, चाहें सारी दुनियां बदल जाये। यह शहर परम्परा जीता है। आधुनिकता के चक्कर में अपने को उजाड़ता नहीं है। उजड़ने की जरूरत भी पड़ी तो परम्परा के चक्कर में ही उजड़ता है। मसलन, सरसैयाघाट में गंगा की धारा भले ही कई किलोमीटर दूर चली गई हों, लेकिन हटिया का लाला सुबह अंगौछा और गंगाजली लेकर आज भी पैदल गंगा स्रान करने जाता है। रास्ते में प्रयागनारायण शिवाले में लेकर और गंगातट तक सड़क किनारे बैठे हुए इक्का-दुक्का भिखारियों को आज भी दस-बीस पैसे के सिक्के बाँटकर पुण्य कमाता है और उसी पुण्य के बल पर दिनभर के व्यापार से हजारों और लाखों रुपये के फायदे की कामना करता है। कानपुर के हिन्दू-मन पर धर्म का यह अन्दर तक पैठा हुआ स्वरूप सालों साल कानपुर की बदलती क्षितिज रेखा के बावजूद अभी वहीं पर बैठा हुआ मिल जाएगा। लेकिन कानपुर के बारे में सिर्फ हिन्दू की बात करना कानपुर के साथ अन्याय होगा। कानपुर जितना हिन्दू का है, उससे ज्यादा मुसलमान का है। मूलगंज, परेड, चमनगंज, कोरियाना आदि मुसलमानों की ऐसी बस्तियों मानी जाती है। नौघड़े की गलियों तथा कोपरगंज और कलेक्टरगंज की कीचड़भरी सड़कों के वावजूद कानपुर की यह समरस जिन्दगी मेरे मन को बहुत रास आती है। फूलबाग से परेड़ को जोड़ने वाली सड़क ऊँचे तबके वालों की शानदार सड़क मानी जाती थी। बी. आई. सी. का दफ्तर कानपुर के उन दफ्तरों में माना जाता था जहाँ अच्छे-अच्छों के जाने की हिम्मत नहीं होती थी। लेकिन जब उसी दफ्तर के सामने रिक्शेवालों की ऐसी लम्बी कतार खड़ी रहती है. कि बी. आई. सी. का दफ्तर खो गया है। रिक्शेवाले ऊँचे हो गये हैं। रिक्शेवाले भी ऐसे कि अपनी मर्जी की माफिक सवारी स्वीकार-अस्वीकार करते हैं। जिस कानपुर को मैं जी कर निकला था, वह कानपुर कालेजों का कानपुर था, विश्वविद्यालय तक पहुंचा हुआ कानपुर नहीं था। वहाँ के तीन डिग्री कालेज डी. ए. वी.. क्राइस्ट चर्च और सनातन धर्म आगरा विश्वविद्यालय में सम्वद्ध होकर समूचे कानपुर और उसके आसपास के लोगों को शिक्षित कर रहे थे। अब कानपुर में अपना खुद का विश्वविद्यालय हैं, मेडिकल कालेज है, इन्जीनियरिंग कालेज है, अलग में आई. आई. टी. भी है, और भी न जाने क्या-क्या है, लेकिन वहाँ के बुजुर्ग बताते हैं कि सब कुछ है पर 'शिक्षा' नहीं है। मैंने उम्मीद की थी कि जिस तरह मेस्टन रोड की गया प्रसाद लाइब्रेरी, विरहाना रोड की मारवाड़ी लाइब्रेरी कानपुर के पढ़ने लिखने वालों में एक खास दर्जा रखती थी, उस तरीके के कम से कम चार-छह लाइब्रेरियाँ अब तक और हो गई होंगी। इसकी जानकारी लेने के लिए अभी चंद हफ्ते पहले मैंने कानपुर के एक मशहूर सार्वजनिक कार्यकर्ता से पूछा तो बोले, 'आप किस जमाने की बात करते हैं नन्दन जी भला आज कोई नौजवान लाइब्रेरी जाना चाहता है? लाइब्रेरी तो खोली जाये, पर पढ़ेगा कौन? कानपुर में पैसे की कमी नहीं है, पैसे के सही इस्तेमाल करने वालों की कमी है।' अनुशासन के कानपुर के अपने ढंग थे। सड़क से लेकर घर तक बड़े-बूढ़ों द्वारा पूरी निगाह रखी जाती थी कि बहू-बेटियाँ सड़कों पर सुरक्षित और इज्जत के साथ निकलें। मजाल है कि किसी 'बेटी के सिर से पल्लू लुढ़के। किसी बड़े-बूढ़े ने देख लिया तो बड़ी-बूढ़ियों की खैर नहीं। उसी कानपुर शहर के मशहूर शायर फना कानपुरी का एक शेर ऐसे लोगों की नजर करना चाहता हूँ:
साहिल के तमाशाई साहिल पे खड़े होकर
तर्कान तो देते हैं इमदाद नहीं करते !
मैंने एक बार फना साहव के सामने उनके इस शेर को मजदूरों की जिन्दगी से जोड़ कर उसका सन्दर्भ पेश किया बोले, 'नन्दनजी, मेरी तो पूरी की पूरी शायरी ही कानपुर हैं। यों तो शायरी किसी एक शहर की ज़िन्दगी नहीं हुआ करती, लेकिन कानपुर से जो मुझे मिला वह मैंने उर्दू अदब को दे दिया। क्या-क्या नहीं दिखाया कानपुर ने? यहाँ बगीचा आप तैयार करते हैं, खरपतवार आप साफ करते हैं, फूल चुनने कोई और चला जाता है। आपको याद है मेरा शेर :
हक गुलिस्तां पे गुलचीं का है बागवानी को हम रह गये!'
कानपुर की यादों की इस बागवानी में मैं जिस पत्ती को भी हाथ लगाता हूँ लगता है दूसरी पत्ती बेतरतीब छूटी जा रही है। कानपुर की नौटंकी, कानपुर की संकीर्तन मंडलियाँ कानपुर एक भरा-पूरा बगीचा था, जिसे, लगता है, कानपुर वालों ने जितना ही संवारा, वह उजड़ता चला गया। फना कानपुरी की गजल के शेर में मैं भी महसूस करता हूं:
मैंने हर शै संवारी मगर, तेरी जुल्फों के खम रह गये!
कानपुर की उन जुल्मों से खम सवारने की हसरत तो आज भी दिल में है। आज भी लगता है कि उसकी मिट्टी मुझे पुकार रही है। जिन्दगी के आखिरी दिन कानपुर के उसी धूल-धुएं धक्कड़ में बिताने की ललक भी है, क्योंकि जिन्दगी में ठसक तो मैं कानपुर की ही जीना चाहता हूँ, और कानपुर की ठसक है कि वाह ! कानपुर के कम्पनी बाग की पत्ती-पत्ती स्वतन्त्रता के इतिहास का लहराता हुआ जीवन्त परचम है। और अगर कहीं आप कम्पनी बाग के बिल्कुल आखिर में उस कुएं तक पहुंच गये, जिसे अंग्रेजों को मार-मार कर उनकी लाशों के ढेर को पाट दिया गया था,. तो आपको याद आ जायेगा नानासाहब पेशवा का बिठूर और भारतीय इतिहास के तमाम सरफरोश दीवाने, जिनकी 'तमन्नाएं' आज सिर्फ लाउडस्पीकर पर बजने के लिए रह गई है। मैं जब कभी कम्पनी बाग जाता था तव उस विशाल बरगद की, धरती को छूती जटाओं को पकड़ कर खेल-खेल में झूलता जरूर था, लेकिन कहीं अन्दर यह पुलक भी महसूस करता था कि इन जटांओं को छूकर मैं कहीं उन दीवानों की आत्मा को भी छू रहा हूँ जिन्होंने हंसते-हंसते इसी बरगद पर फांसियाँ झूल ली थी, लेकिन अपने राज को फाश नहीं होने दिया था। जब पहली बार मेरे पिताजी मुझे कम्पनी बाग घुमाने ले गये थे तब इस बरगद के नीचे पहुँच कर इतने भावुक हो गये थे कि उसकी पत्तियाँ कुछ ऐसे छूते थे जैसे कोई किताब हो और वह उसके पन्ने पढ़ रहे हों। इसे पागलपन कह लीजिए, लेकिन उस बरगद की पत्तियों को छूने में आज भी कभी-कभी चला जाता हूँ, क्योंकि जब भी मुझे लगता है कि सचमुच वह बरगद एक किताब है, जिसके क्रान्तिकारी अक्षर केवल मन की आँखों से ही पढ़े जा सकते हैं।
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