युग व्यामोह रचियता सुरेश चन्द्र मिश्र ‘विमुक्त’ अध्यापक, रामाधीन सिंह कालेज, बाबूगंज, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

  सत्यं    शिवं सुन्दरम्

ऊँ सरस्वत्यै नमः

ऊँ श्री बृहस्पतये नमः   ऊँ श्री गणेशाय नमः

अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतसाम्। 

उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम्।।


-ः युग व्यामोह:-


सर्वे भवन्तु सुखिनो, सर्वे सन्तु निरामयाः। 

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद दुःखभाक्भवेत।।

सुरेश चन्द्र मिश्र ‘विमुक्त’

अध्यापक, रामाधीन सिंह कालेज,

बाबूगंज, लखनऊ, उत्तर प्रदेश


पृथ्वी माता की जय हो।

भारत माता की जय हो।

समस्त देवों की जय हो।

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-ः समर्पण:- 

    मैं इस ‘युग-व्यामोह’ नामक काव्य को अपने पूजनीय पिता जी श्री पं0 ब्रह्मदत्त शिरोमणि जी को पूर्ण श्रद्धालु हृदय से समर्पित करता हूँ जिनकी वरद छाया में मैं आज तक पलता रहा और पलता रहूँगा।
    यह काव्य आपके ही विचारों का व्यावहारिक रूप है। आप जो कुछ, समय-समय पर हमारे हृदय पटल पर अंकित करते रहे; वह सब कुछ ही अपना स्थूल रूप लेकर, इस काव्य का रूप धारण कर चुका है।
    अन्तर्मुखी व्यक्तित्व होने के कारण, समाज से आप दूर रहे, इसलिये आपका पुत्र होने के कारण, आपके दिव्य रूप का साक्षात्कार मैं ही कर सका। आशा है, हमारी यह तुच्छ भेंट, आपको तृप्त करने में समर्थ होगी।


आपका चरण सेवक
दिनाँक 3.6.91 सुरेश चन्द्र मिश्र‘विमुक्त’
एम0ए0(राजनीति, हिन्दी),एल0 टी0
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-ः पाठकों से निवेदन:- 


प्रिय पाठकों!
यद्यपि शास्त्रों ने यह कहा है कि ‘न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्’ अर्थात अप्रिय लगने वाला सत्य भी नहीं बोलना चाहिये; परन्तु विश्व कल्याण के दृष्टिकोण को सामने रखते हुए, अगर वास्तविक दोषों पर पर्दा पड़ा रहेगा तो मानव कल्याण होना सम्भव नहीं, इसलिये कटु सत्य कहने के लिये बाध्य हो गया हूँ। सच्चे शिक्षक का धर्म केवल शिक्षा देना ही नहीं है अपितु समाज एवं विश्व के दोषों का अनावरण करना भी है।
    हम में से कोई शिक्षक हैं, कोई शासक हैं, कोई विधायक हैं और कोई व्यापार धर्म पर चलने वाले तथा सेवा कार्य करने वाले हैं, यह मैं भली भाँति जानता हूँ। मैंने समाज के दोषों का निरूपण सामान्य रूप से किया है, उसे समाज के किसी विशिष्ट अंग के प्रति द्वेष की भावना से प्रेरित होकर नहीं।
    अपने दोषों को सुनकर, क्रोध से आग बबूला हो जाने से कार्य न चलेगा अपितु अपनी आत्मा से पूछिये कि क्या यह बात उचित है या अनुचित, यदि जो कुछ मैंने कहा है उचित है, तो फिर क्या, सत्य मार्ग का अवलम्बन करना आरम्भ कर दो। इसी में ही जन कल्याण निहित है और तभी ईश्वर की मंगलकारिणी भावना को शान्ति मिलेगी।
    हमारी आलोचना के लक्ष्य, केवल किसी विशेष देश के शिक्षक, शासक, विधायक और व्यापारी नहीं हैं, अपितु वे समग्र विश्व के शिक्षक, शासक, विधायक एवं व्यापारी हैं। मैंने अन्य महत्वपूर्ण बातों के अतिरिक्त विशेष रूप से     अपने ‘लोभ’ एवं ‘मोह’ सर्गों में शिक्षकों, विधायकों, चिकित्सकों एवं व्यापारियों की आलोचना की है और यह उचित भी है। इसका उत्तर प्रत्येक का अन्तःकरण स्वयं ही दे सकता है।
    यह काव्य, देशगत, जातिगत एवं धर्मगत नहीं है, अपितु इसमें सम्पूर्ण विश्व की समस्याओं का निरूपण किया गया है। मानव धर्म सम्पूर्ण विश्व का एकमात्र धर्म है, उसी का ह्रास देखकर, इस काव्य की रचना करने को बाध्य हो गया हूँ। यह काव्य समग्र विश्व का युग काव्य है। भौतिकवाद के अतिशय प्रयोग ने ही, मानव बुद्धि विकृत कर रक्खी है। उसी के नाश हेतु, इस काव्य की रचना करने के लिये, मैं कृत संकल्प हो गया। 



आपका चरण सेवक
दिनाँक 3.6.91 सुरेश चन्द्र मिश्र‘विमुक्त’
एम0ए0(राजनीति, हिन्दी),एल0 टी0
अध्यापक, रामाधीन सिंह काॅलेज,
बाबूगंज, लखनऊ।
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-ः भूमिका:- 

    आज समग्र विश्व को भेड़ों की तरह अन्धानुकरण करता हुआ देखकर मन आक्रोश से भर उठा है। नाश की ओर निरंतर बढ़ने पर भी, सब उसी पथ पर अग्रसर हैं। बेसुध! बेफिक्र! तन बदन का होश खोकर, भौतिकवाद रूपी दैत्य के मुख में प्रविष्ट होने के लिए उत्सुक मानव, अपनी बुद्धि खो बैठा है। कहा भी है:-

‘प्रायः समापन्न विपत्ति काले,
धियोऽपिपुंसां मलिनी भवन्ति।’

      ऐसी स्थिति में, जबकि समग्र विश्व भ्रष्ट हो चुका है, उसका नाश होना स्वाभाविक सा लग रहा है। मजे की बात तो यह है कि सभी की बुद्धि व्यामोह में ऐसी खो गई है कि उसे हित की बात अमंगलकारिणी प्रतीत होती है। महाभारत युद्ध के समय में व्यासदेव ने द्रोणाचार्च पुत्र अश्वत्थामा एवं गाण्डीवधारी अर्जुन को सम्बोधित करके कहा था ‘‘तुम दोनों ही महान वीर हो। बुद्धि से काम लो। तुम दोनों ही के पास पाशुपतास्त्र हैं। इनका प्रयोग किसी भी दशा में ठीक नहीं। अगर तुम इनका प्रयोग करते हो तो सारी पृथ्वी पर चैदह वर्ष तक अन्न की उत्पत्ति सम्भव नहीं फलतः समस्त पृथ्वी प्राणि मात्र से शून्य हो जायेगी। महायन्त्रों का प्रयोग, मानव कल्याण नहीं कर सकता।’’
    आज, पुनः समग्र विश्व में वही स्थिति प्रस्तुत हो चुकी है। इसलिये व्यासदेव के उस उपदेश को जानना जनहित के लिये आवश्यक हो गया है। यन्त्रवाद के प्रति अनुचित मोह का त्याग शीघ्र ही करना होगा अन्यथा शंकर का ताण्डव नृत्य होकर रहेगा, वह बच नहीं सकता। फलतः प्रलयकारी दृश्य उपस्थित होने में अब देर नहीं। अगर जन मंगल करना हमारा लक्ष्य शीघ्र ही नहीं बन जाता तो निश्चित ही हम उस स्थिति से बच न पायेंगे, जिससे बचना जनहित के लिय आवश्यक है।
प्रस्तुत ‘युग-व्यामोह’ नामक काव्य में मैंने भौतिकवाद के विभिन्न रूपों का विषद चित्रण किया है। भौतिकवाद के रूप हैं:- यन्त्रवाद, वर्गवाद, काम, क्रोध, लोभ तथा मोह। इन्हीं रूपों को धारण करके, आज, भौतिकवाद पुनः समग्र मानवता का नाश करने के लिये सन्नद्ध हो उठा है।
    सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक कई बार इस वाद ने मानव को मूर्ख बनाया और उसका नाश किया। जितनी भी बुरी चीजें होती हैं उनकी ओर हमारा मन अवश्य ही शीघ्र आकर्षित हो जाता है। हम पुनः भौतिकवादी चमचमाहट की चकाचैंध से चकित होकर, उसके पीछे आंख मीच कर चल पड़े हैं। अगर हम शीघ्र ही, इस स्थिति से विरत नहीं होते, तो हमारा नाश अवश्यम्भावी है, उसे कोई बचा नहीं सकता।
    आश्चर्य तो यह है कि इस दयनीय स्थिति में भी, इन नये-नये आविष्कारों के होने से हमारी बुद्धि व्यामोह में इतनी फंस गई है कि हम उनसे उत्पन्न होने वाली हानियों से अवगत नहीं हो पाते। हमें गर्व हो गया है कि हमने विश्व के इतिहास में यह अनोखा तीर मारा है। हमसे पहले की जनता कुछ नहीं जानती थी। हम अब सभ्य हैं और उत्तरोत्तर सभ्य होते जा रहे हैं। परन्तु वास्तव में यह सब मिथ्याहंकार है।
    विश्व में दो प्रमुख मार्गों का अवलम्बन हमेशा से होता रहा है। एक है श्रेय मार्ग और दूसरा है प्रेय मार्ग। जो व्यक्ति श्रेय मार्ग का अवलम्बन करते हैं उन्हें दैवी सम्पदा से युक्त माना जाता है और जो प्रेय मार्ग का अनुसरण करते हैं, उन्हें दानवी या आसुरी सम्पदा से पूर्ण समझा जाता है। श्रेय मार्ग आत्मा का कल्याण करने वाला है। इससे विश्व में शान्ति, सुख एवं सौहार्द की भावना का विकास होता है एवं ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की विचारधारा जन-जन में व्याप्त होती है तथा प्रेय मार्ग जो कि दानवता को प्रश्रय देता है, विश्व में वैमनस्य, दुःख, द्वेष, फूट एवं होड़ का बीजारोपण करके मानव को तमोगुण से युक्त कर एक ऐसे वातावरण को प्रस्तुत करता है, जिससे समग्र विश्व में अशान्ति की स्थिति पैदा हो जाती है।
    छान्दोग्य उपनिषद् में एक ऐसी ही भयावह स्थिति का वर्णन आता है, जिसमें कि प्रेय मार्ग से संसार मोहित हो गया था। दानव राक्षस या असुर शब्द का अर्थ लोग ऊटपटांग लगाते हैं। वास्तव में उनका शरीर, कोई मानव शरीर से भिन्न नहीं होता। एक ही मनुष्य, अपने कार्यों के कारण ही मानव और दानव होता है। भौतिकवाद का ऊलजलूल प्रयोग करने वाले ही राक्षस कहे जाते हैं और उसका उचित प्रयोग ही मानवता का लक्षण है। यन्त्रवाद का अतिशय प्रयोग, मानवता का शोषण कर रहा है। हमें उसका उन्हीं कार्यों में प्रयोग करना चाहिये जिन कार्यों को हम अपने हाथों से करने में असमर्थ हों।
    इतिहास इस बात का साक्षी है कि राम ने रावण का वध किया था। इस वध का कारण सीता जी का हरण नहीं था अपितु इसका कारण था रावण का अतिशय भौतिकवादी होना, इसीलिये उसे राक्षस कहा जाता था। अवतारी पुरुषों ने हमेशा भौतिकवाद के नाश के लिये ही अवतार लिया है। महाभारत युद्ध से पूर्व कृष्ण ने अपनी ओर के लोगों की शक्ति जाननी चाही। उस समय किसी ने कौरव सेना को तीन दिन में, किसी ने दो दिन में और किसी ने एक दिन में ही नष्ट करने के लिये कहा परन्तु घटोत्कच पुत्र बर्बरीक ने जो कि भीम के पौत्र थे, कहा कि वह एक पल में ही समस्त कौरव सेना को नष्ट कर सकता है। इतना सुनते ही कृष्ण ने चक्र से उसका गला काट लिया। यह थी भौतिकवादी शक्ति के प्रति उपेक्षा। घटोत्कच ने जो कि राक्षसी से उत्पन्न पुत्र था, महाभारत में आकाशीय युद्ध किया था। यही था उसके अन्दर का आसुरी गुण। ऐसे कार्य अधार्मिक माने जाते थे।
    पूजनीय गांधी जी ने भी इस सत्य को समझा था, इसलिये वह भी यन्त्रवाद के अतिशय प्रयोग के विरोधी थे। चरखे का प्रयोग उनके इसी सिद्धान्त का साक्षी है। धर्म का वास्तविक रूप उन्होंने समझ लिया था। सभी महापुरुषों की विचारधारा में समानता होती है। धन का अनुचित केन्द्रीयकरण, फलतः वर्गवाद की उत्पत्ति, यन्त्रवाद के कारण ही हुई। इसीलिये यह राक्षसी कृत्य है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी योगिराज कृष्ण ने कहा है कि ‘‘अध्यात्म विद्या विद्यानाम’’ अर्थात् विश्व की सम्पूर्ण विद्याओं में मैं अध्यात्म विद्या हूँ। वास्तव में आत्मा एवं परमात्मा सम्बनधी ज्ञान प्राप्त करना ही सबसे कठिन कार्य है, इसीलिये यह विद्या सब विद्याओं में श्रेष्ठ है। जितना जितना भौतिकवाद बढ़ता जा रहा है हम उतने ही अपने बारे में ज्ञान शून्य होते जा रहे हैं। शान्ति खोकर अन्धकार में भटक रहे हैं।
    ईश्वर एक महान योगी है, उसकी माया के जाल को समझना इन भौतिक तत्वों को जानकर सम्भव नहीं। उसकी सृष्टि का अन्त नहीं। उसके बारे में यदि विचार करना शुरु कर दिया जाय तो दिमाग खराब हो जायेगा। एक सौरमण्डल ही नहीं है। असंख्य सौरमण्डल हैं। कैसे नाप पाओगे उसके समग्र लोक! तुच्छ मानव! तुम व्यर्थ में ही अपना अर्थ, श्रम और समय नष्ट कर, केवल धूल ही पा सकोगे। इसमें कोई सन्देह नहीं। एकमात्र योग धर्म का पालन करके ही हम उस परम योगी परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार कर सकते हैं। और तभी यह सम्भव होगा कि हम उसके सकल ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझ सकें, जो कि उनकी योगमाया का परिणाम है। श्रेय मार्ग पर चलकर ही, धर्म के अनुकूल अर्थ अर्जन एवं काम का भोग करके मोक्ष प्राप्त कर सकोगे, सांसारिक रहस्यों को समझ सकोगे, अन्यथा नहीं।
    अभी समय है। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के वास्तविक रूप को जानकर, आत्म विश्वास, आत्म बल एवं आत्म संयम रूपी शस्त्रों को प्रयोग में लाकर अविद्या एवं अज्ञान का नाश करने में, अब भी समर्थ हो सकते हो।
    श्रद्धा और विश्वास का सम्बल लेकर, मैंने इस ‘युग-व्यामोह’ नामक काव्य की रचना की है। अगर इस पथभ्रष्ट एवं भ्रमित विश्व को यह सुमार्ग पर डालने में समर्थ हुआ, तभी मेरा परिश्रम सफल होगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह काव्य जनमंगल करने में समर्थ होगा। एक मात्र इसी भावना से प्रेरित होकर, मैंने इस काव्य का प्रणयन किया है।
    इसके अतिरिक्त यह कह देना भी आवश्यक है कि मैंने यह काव्य, पाण्डित्य प्रदर्शन के लिये नहीं लिखा है। मैंने रस, छन्द एवं अलंकारों का प्रयोग जानबूझकर नहीं किया है, जो स्वाभाविक रूप से आ गये हैं, आ गये हैं। समस्त विश्व के हित के लिये ही कहीं कहीं पर कटु भी होना पड़ा है। विश्व हित के लिये भ्रष्टाचार रूपी फोड़े को वाग्बाण रूपी शल्य चिकित्सा की ही आवश्यकता होती है। विद्वज्जन काव्य के दोषों पर ध्यान न देते हुए उसके अन्दर सन्निहित जन मंगल की भावना पर विचार करेंगे। यही मेरी प्रार्थना है।



आपका चरण सेवक
दिनाँक 3.6.91 सुरेश चन्द्र मिश्र‘विमुक्त’
एम0ए0(राजनीति, हिन्दी),एल0 टी0
अध्यापक, रामाधीन सिंह काॅलेज, 
बाबूगंज, लखनऊ। 
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अनुक्रमणिका:-

प्रथम सर्ग                                                     भौतिकवाद                                     पृष्ठसंख्या (1)
द्वितीय सर्ग                                             यन्त्रवाद                                     पृष्ठसंख्या (15)
तृतीय सर्ग                                                     वर्गवाद                                             पृष्ठसंख्या (41)
चतुर्थ सर्ग                                                     काम(1)                                     पृष्ठसंख्या (53)
पंचम सर्ग                                                       क्रोध                                                पृष्ठसंख्या (69)
षष्ठ सर्ग                                                      लोभ                                             पृष्ठसंख्या (81)
सप्तम सर्ग                                             मोह                                             पृष्ठसंख्या (93)
अष्टम् सर्ग                                                     धर्म                                             पृष्ठसंख्या (105)
नवम् सर्ग                                                     अर्थ                                              पृष्ठसंख्या (129)
दशम् सर्ग                                                     काम(2)                                     पृष्ठसंख्या (139)
एकादश सर्ग                                             मोक्ष                                             पृष्ठसंख्या (149)
द्वादश सर्ग                                             कामना                                             पृष्ठसंख्या (159) 

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मंगलाचरण:-

‘‘वीणा वादिनी! ज्ञान प्रकाशिनी! कलुष बुद्धि का धो दो।
मातु शारदे! तन, मन, जन का, निर्मलता से भर दो।
आज, निकालो स्वर तुम ऐसे, सात्विकता झंकृत-हो।
नत मस्तक हूँ, मैं तब सम्मुख, मम मन, स्थिर कर दो।’’

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-ः आराधना:-

आज तेरी क्या करूँ आराधना,
जबकि खण्डित हो गई है साधना।
विश्व के आराध्य, तुम ऐसा करो,
शीघ्र ही साकार हो, सब दुख हरो।।

आज मानव हो गया पथ भ्रष्ट है,
बुद्धि उसकी हो गई अब नष्ट है।
किन्तु मद में आज वह अब चूर है,
और वह अपनी समझ में शूर है।।

प्रार्थना बस एक है तुमसे प्रभो!
ध्यान देकर के, उसे तुम अब सुनो।
आज मानव विश्व के मानव बने,
सभी के कल्याण हित तन मन सनें।।

आज वह निज स्वार्थ में आसक्त हो,
भूल बैठा, दूसरे का स्वत्व है।
क्यों न, तुम अब, शंख ऐसा फूँक दो,
और उसकी दनुजता को भून दो।।

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प्रथम सर्ग
-ः भौतिक वाद:-
‘‘कौन हो तुम! और क्यों कर आ उपस्थित हो गये हो!
विश्व को इस भाँति सम्मोहित निरंतर कर रहे हो।
जान पड़ता है नियति ने ही तुम्हें है आज भेजा।
घोर ताण्डव नृत्य करके, फाड़ने उसका कलेजा।’’
(1)
आज मानव बुन रहा है, एक ऐसा जाल,
फंस रहा है, वह उसी में, अब सतत बेहाल।
छोड़, अपनी सरलता को, कुटिलता को पाल,
कंटकों में दीखते हैं, उसे आज रसाल।।
(2)
विश्व में विश्वास का, हो गया आज अकाल,
डस रहा है, आज जन, जन को, अहो! हो व्याल।
आज कहने और करने में हुआ है भेद,
इसी कारण हो गये, सम्बन्ध सब, विच्छेद।।
(3)
विश्व में सारे मचा है, आज, हाहाकार,
करुण क्रन्दन का रहा, हो चतुर्दिक विस्तार।
सरलता को छल रही है, दुष्टता दिन रात,
पुण्य सहता जा रहा है, पाप के आघात।।
(4)
धन्य भौतिकवाद! तुमको धन्य सौ सौ बार,
आज मोहित कर लिया तूने सकल संसार।
भूल बैठा वह स्वयं को, आज बन असहाय,
सत्य समझा है, तुम्हीं को, आज हो निरुपाय।।
(5)
छोड़ बैठा, वह स्वयं ही, हाथ की पतवार,
खो चुका है आत्मसंयम, भूल कर सब सार।
भंवर में अब फंस गया है, भूल अपनी शक्ति,
विस्मरण हैं, हो चुकीं, अब और सारी युक्ति।।
(6)
कौन? और क्यों कर, आ उपस्थित हो गये हो?
विश्व को इस भाँति, सम्मोहित निरंतर कर रहे हो।
सत्य ही है, नियति ने ही तुम्हें है आज भेजा,
घोर ताण्डव नृत्य करके, फाड़ने उसका कलेजा।।
(7)
या कि तुम शिव दूत हो, या और कोई देव,
समझते हो नाश में ही, जगत का कल्याण।
इसी शिव उद्देश्य को लेकर चले तत्काल,
हो रहा है, काल प्रमुदित, देखकर तब चाल।
(8)
तुम सहस्रों रूप होकर, आज हो सन्नद्ध,
लोक का संहार करने को हुए कटिबद्ध।
हृदय में है, लोक मंगल की महान उमंग,
इसलिये ही रौद्र में भी, शान्ति का है संग।।
(9)
काल कवलित हो चुका है, आज सारा प्रान्त,
भटकता है, हाय! मानव आज होकर भ्रांत।
लक्ष्य अपना भूलकर, वह हो उठा है, क्लान्त,
आज भूतल सुन रहा है, यह दशा दुर्दान्त।।
(10)
दुर्दशा में भी बना है, वह निरा अनजान,
कर रहा है आज छक कर वह सुरा का पान।
वारुणी मोहित किये है, आज, उसकी बुद्धि,
इसलिये ही, दूर है अब, आज उससे शान्ति।।
(11)
आज मानव, शुम्भ और निशुम्भ होकर,
वासना की प्राप्ति मिस तप कर रहा है।
और शंकर, तपस्या के क्रीत दास रहे सदा हैं,
आज भी वे, आशुतोष बने हुए हैं।।
(12)
आज भौतिकवाद रूपी पार्वती की चाह में वे,
विकल हो, संतप्त हो, तप कर रहे हैं।
धन्य शंकर! इस अनैतिक चाह को भी जानकर,
तुम पूर्ण शान्त बने हुए हो।।
(13)
सिद्ध योगीश्वर! जानते तुम क्या नहीं हो!
शक्ति देवी की नहीं पहचानते हो?
तमोगुण युक्त तप का, नाश ही परिणाम होगा,
शक्ति पर, बस प्राप्त करना, क्या कभी आसान होगा।।
(14)
शक्ति पाकर, होड़ होगी, होड़ से संघर्ष होगा,
और फिर विध्वंस होगा, नाश होगा, प्रलय होगा,
और ताण्डव नृत्य होकर, जगत का संहार होगा,
सृष्टि होगी और फिर नव रूप में विस्तार होगा।।
(15)
दे दिया वरदान, तुमने, घोर तप को देख,
मांग बैठे, वे उमा को, विश्व की जो शक्ति।
शक्ति के मद में हुई थी, बुद्धि उनकी भ्रष्ट,
और दोनों हो रहे थे, एक में आकृष्ट।।
(16)
मुस्कराकर शक्ति बोली, देखकर, वे दैत्य,
‘‘मैं रहूँगी एक ही के साथ, यह है सत्य।
युद्ध करके, देख लो, है कौन तुम में वीर,
मैं करूँगी वरण उसका, सिद्ध जो रणधीर।।’’
(17)
तर्क सुनकर, दैत्य बोले - ‘‘बात है यह सत्य,’’
और तब वे भिड़ गये, हो स्वार्थ में आसक्त।
शक्ति पाने के लिये, कटिबद्ध दोनों हो गये थे,
नाश को कर प्राप्त, हा! वे उस समय ही सो गये थे।।
(18)
आज फिर वह पूर्व स्थिति स्वतः प्रस्तुत हो चुकी है,
और फिर व्यामोह में अब शान्ति, जग की, खो चुकी है।
आज शुम्भ, निशुम्भ केवल दो नहीं हैं, सहस्रों हैं,
इसलिये ही ध्वंस करने, काल तत्पर हो चुका है।।
(19)
आज सारा विश्व उद्धत हो चुका है,
और सारी शक्ति अपनी खो चुका है।
दर्प, दम्भ, अधर्म का है बोलबाला,
प्रकृति से भी और उसने बैर पाला।।
(20)
आत्म बल को भूलकर, विश्वास का कर त्याग,
आज भौतिक शक्ति पर ही, रह गया विश्वास।
जो, न निज, इन्द्रियों पर, वश कर सका,
क्या करेगा, कभी संचय शक्ति का!
(21)
आज भौतिक शक्ति का प्राबल्य है,
इसलिये ही आत्म शक्ति नगण्य है।
विश्व का संहार करना अभिलषित,
इसलिये वे तुझे पाने को तृषित।।
(22)
शक्ति को पाकर, भला वह कौन है, जो शान्ति पावे,
नाश को कर दूर, शिव की ओर अपने पग बढ़ावे।
स्वार्थ का कर त्याग, वह है कौन, जो जीवन सुधारे!
और बल विश्वास का ले, मार्ग के काँटे हटावे।।
(23)
चाहते यदि विश्व का कल्याण हो तो,
मोह का पर्दा उठा, योगाग्नि में अब कूद जाओ।
राख कर दो, दुष्टता को, मूढ़ता को, दनुजता को,
और तब प्रहलाद बन कर शुद्ध कंचन निकल आओ।।
(24)
शान्त सारी प्रकृति है पर आज चंचल हो रहे तुम,
और भौतिकवाद के प्रति घोर आकर्षण बढ़ाये।
शलभ सम उस दीप के प्रति प्रेम करना चाहते हो,
जो तुम्हारी शक्तियों को, नष्ट करके, शान्ति लेगा।।
(25)
ले सहारा आत्म-बल का, भुला दो जड़वाद सारा,
और यदि तुम लोभ अपना संवरण सब कर न पाओ।
आत्म संयम का सहारा ले, उसे तुम भून डालो,
और निज विश्वास के बल, डूबती संस्कृति बचा लो।।
(26)
आज, भौतिक शक्ति ही सब ओर है,
विश्व के कल्याण का दम भर रही।
अरे! फिर क्यों, घोर अशान्ति से,
विश्व मन क्षत विक्षत हो रहा।।
(27)
अरी पार्थिव चमचमाहट! विश्व को अन्धा न कर अब,
दामिनी की चमक सी, स्थिर नहीं तू रह सकेगी।
अरी! फिर निष्पाप मानव-बुद्धि को क्यों भ्रमित करती?
और उसके मार्ग को अवरुद्ध कर पथ-भ्रष्ट करती।।
(28)
आज, यह जीवन, पहेली बन गया है,
समझ में आता नहीं है छोर इसका।
सरलता, सौजन्यता से दूर होकर,
विवशता का रूप धारण कर चुका है।।
(29)
अरे! तुम क्यों ज्ञान का संदेश देना चाहते हो,
और इसकी रूपरेखा बदल देना चाहते हो।
किन्तु यह सम्भव नहीं है, आधुनिक वातावरण में,
जबकि मानव-बुद्धि, विकृत हो चुकी है।।
(30)
आज, मानव-बुद्धि कुंठित हो गई है,
क्योंकि वह भौतिक शक्ति का है दास,
सूक्ष्म तत्वों से पुनः अब विरत होकर,
कर रही दृढ़, उसी में विश्वास।।
(31)
आज खड़ा है मानव, प्रकृति सुन्दरी से मुख मोड़,
और तुच्छ बातों में पड़कर, लगा रहा आपस में होड़।
तुम्हीं बताओ, कैसे होगा, जग जीवन कल्याण,
सूख गया, जब हृदय सभी का, कैसे हो निस्त्राण।।
(32)
भूल गया, वह मूल्य प्रेम का, शुद्ध स्वार्थ का बाना ओढ़,
भटक गया वह, सत्य मार्ग से, आत्म त्याग से नाता तोड़।
जीवन का रहस्य क्या है? और आत्मा की पुकार क्या है?
इन तथ्यों से पूर्ण विरत हो, आँख मीच कर बैठा है।।
(33)
चकित, थकित है, मम मन, देख तुम्हारा वैभव,
आत्मा के रहस्य से, जो दूर हो रहा प्रतिक्षण।
सूख रहा है, स्रोत शक्ति का, होम हो रहा जीवन,
अरे! बताओ, कैसे होगा, इस जग का आरक्षण।।
(34)
विश्व ने हा! आत्मा को त्याग,
आज पाया, केवल जड़वाद।
भूलकर वह, शक्तियों का स्रोत,
मान बैठा, शान्ति को अवसाद।।
(35)
क्या आज तुम, संहार करना चाहते हो?
इसलिये ही इस तरह हुँकारते हो।
खींचकर, असहाय मानव को स्वयं,
निज उदर भरना चाहते हो।।
(36)
शक्ति पर, साम्राज्य तुमने पा लिया है, मानता हूँ,
ठग लिया है, और तुमने मूर्ख मानव, जानता हूँ।
किन्तु तुम विश्वास रक्खो, जीत में अब भी नहीं हो,
क्योंकि शाश्वत सत्य से तुम दूर होते जा रहे हो।।
(37)
आह! मानव देखकर, तब दुर्दशा,
हृदय में, अब भर रही है, खिन्नता।
दास बनना ठीक है क्या? जड़वाद का,
जबकि, तुम हो, नित्य चेतन सर्वथा।।
(38)
सरलता, शुचिता, सरसता त्याग कर,
शुष्क पत्थर हो गये हो, आज तुम।
चाहते यदि लोक मंगल हृदय से, तो
मान लो, यह सब, अधार्मिक कृत्य हैं, तुम।।
(39)
सत्य को जब सत्य कहना पाप हो,
जान लो, यह विश्व, तब अभिशप्त है।
नाश करने के लिये, संसार का हा!
आज, तत्पर दीखता, अब काल है।।
(40)
अरे! भौतिकवाद! कितने रूप धरकर,
ठग रहे, विक्षिप्त मानव को निरंतर।
आज, मैं पहचान लूँगा, रूप तेरे,
और ऐसा जाल डालूँ, जो तुम्हारी शक्ति घेरे।।
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द्वितीय सर्ग
-ः यन्त्रवाद:-
‘‘यन्त्रवाद! विभिन्न रूपों में दिखाई दे रहे तुम,
मुग्ध करके, विश्व सारा, भ्रमित करना ठीक है क्या?
लूट लोगे, शक्ति जग की, चमचमाहट को दिखाकर,
उचित है क्या, इस तरह से, विश्व को निर्बल बनाना।’’
(1)
अरे! भौतिकवाद के भेजे हुए, यमदूत!
विश्व को अभिभूत करने, आ गये फिर।
तुम्हीं रावण रूप में, आये कभी थे,
और द्वापर में तुम्हीं ने नाश ढाया।।
(2)
सत्ययुग में देव दानव युद्ध,
सुनते हैं, तुन्हीं ने था कराया।
किन्तु तब तुम, सतोगुण से युक्त थे,
और अपनी दुष्टता से मुक्त थे।।
(3)
कलियुग में तमोगुण प्रधान हो जाने से,
वीभत्स रूप धार हा!कर चुके।
शक्ति के उचित प्रयोग से, अनभिज्ञ,
जग को, आच्छादित किया है फिर मोह से।।

(4)
आज, मानव को मशीन, बना दिया है,
और उसकी शक्तियों को छीनकर, पशु सम किया है।
शील, शिष्टाचार से, वह दूर है, अब हो गया,
और, निज विश्वास से, विश्वास, उसका खो गया।।
(5)
यन्त्रवाद! विभिन्न रूपों में, दिखाई दे रहे तुम,
मुग्ध करके, विश्व सारा, भ्रमित करना ठीक है क्या?
लूट लोगे, शक्ति जग की, चमचमाहट को दिखाकर,
उचित है क्या, इस तरह से, विश्व को निर्बल बनाना।।
(6)
क्यों अकड़ कर देखते हो,
दास मुझको अब बनाकर।
स्वावलम्बन को भुलाकर,
क्यों रहे हो ठग निरंतर।।
(7)
शक्ति से, सामथ्र्य से, अब रिक्त होता जा रहा हूँ।
और अपनी शक्तियों को, आज खोता जा रहा हूँ।
साथ लेकर के तुम्हारा, आज ठोकर खा रहा हूँ।
निज कुशलता, भूलकर मैं, आज, अब पछता रहा हूँ।।
(8)
शक्ति अपने हाथ की ही साथ देती सर्वदा है,
अन्य पर विश्वास करना, रेत का घर बनाना है।
व्यक्ति को तुमने सिखाई काहिली है,
इसलिए ही शक्ति उसकी, आज मिट्टी में मिली है।।
(9)
आज भी यदि, साथ उसका छोड़ दो,
तभी शायद, अब उसे कुछ होश हो।
आज, सौ के भाग को, वह है, अकेला खा रहा,
और आँखे मीचकर, वह हँस रहा, सुख पा रहा।।
(10)
और, लोभी कर दिया, तुमने उसे,
दीखता है, अब नहीं, पर दुःख उसे।
प्रेम से जो पूर्ण था, कुछ काल पहले,
आज उसका, द्वेष से ही हृदय बहले।।
(11)
धीरे-धीरे विश्व, अपने जाल में है फंसाया,
और, अपनी शक्ति पर, विश्वास उसका जमाया।
तुमने अपने रूप से, संसार सारा, रिझाया,
रे सठ! तूने जगत को, अन्याय, केवल सिखाया।।
(12)
बन्धु भी, अब बन्धु का, है नाश करना चाहता,
तब बताओ, आज है, अब कौन किसको चाहता?
चल दिया है, आज जग, फिर उसी पथ पर,
लोभ ने बतला दिया जो मार्ग सुन्दर।।
(13)
आज मानव हो गया है, स्वार्थी और आलसी,
दूसरों को चूस कर, है चाहता रहना सुखी।
बटन, केवल दाबकर ही, चाहता सब कार्य करना,
दूसरों की चाँद पर ही चाहता है, ठाठ करना।।
(14)
निज कुशलता से हुआ है, आज वह बिलकुल, उपेक्षित,
दास होकर के तुम्हारा, ये मशीनों! वह पड़ा है, हो चकित।
कौन से आश्चर्य की है बात इसमें, जो कि तुम-अब,
कर रहे हो, कार्य सारे शीघ्र ही, जो कठिनतम सब।।
(15)
ज्ञान का उपयोग, केवल है तभी,
विश्व-हित का नाश, हो न सके कभी।
सत्य तो रहता हमेशा सत्य ही,
धर्म के अनुकूल रहता नित्य ही।।
(16)
यन्त्रवाद! हुए प्रबल हो, आज तुम,
सत्य को भूलो न यों हो सबल तुम।
सरल मानव, मोह से, आवृत्त हो,
जानता है नहीं, तब दुर्वृत्त को।।
(17)
आज, मानव हो चुका विक्षिप्त है,
क्योंकि, वह अब स्वार्थ में ही लिप्त है।
दूसरों को लूटने में, हो चुका अभ्यस्त है,
क्योंकि तुम पर, आज वह आसक्त है।।
(18)
महायन्त्र प्रयोग वर्जन शीघ्र होना चाहिये,
घोर इस दुष्कर्म से, अब त्राण मिलना चाहिये।
सरल जीवन, शान्त, जीवन, आज कटुमय हो गया;
घोर इस संघर्ष में, वह आज, दुर्वह हो गया।।
(19)
मूर्ख मानव, आज दानव हो चुका है,
शक्ति और सामथ्र्य, अपनी खो चुका है।
समझता है, शक्ति पर वश कर चुका हूँ;
जानता है, विश्व का अधिपति हुआ हूँ।।
(20)
किन्तु निज की शक्ति, खोता जा रहा है,
और दुर्वह बोझ ढोता जा रहा है।
आत्मा की शक्ति से अनभिज्ञ होकर,
आज भौतिक शक्ति पर ही, जी रहा है।।
(21)
अरे! विकल मानव को तू क्यों और विकल करता है,
सरल हृदयता छीन जगत से, आन, गरल भरता है।
भले समझ लो, इस प्रपंच से, तुमको शान्ति मिलेगी,
किन्तु दनुजता, मानवता पर, कब तक चाल चलेगी।।
(22)
पशु बल, जन बल, सब व्यर्थ, हो गया है अब,
केवल तब बल हो, शेष रहा गया है, अब।
सम्पूर्ण शक्ति, तुम लूट चुके हो उसकी,
चल रहा, तुम्हारे पीछे वह, हो सनकी।।
(23)
हाय! देखो, आज, मानव पशु बना है,
यन्त्र में, विश्वास उसका अब घना है।
कार्य सारे, शीघ्र करना चाहता है,
इसलिये ही मुंह तुम्हारा ताकता है।।
(24)
आज नर संहार है, अब हो रहा,
व्यक्ति मक्खी की तरह, तम खो रहा।
मूल्य उसकी जान का है, अब नहीं,
बिक रहा, वह दो टके पर सब कहीं।।
(25)
दुर्दशा, यह देखकर मन दहल जाता,
क्यों न अब, संसार ही यह बदल जाता।
जबकि, मानव शक्ति से अब रिक्त है,
जबकि दानव शक्ति से अभिषिक्त है।।
(26)
आज, करुणा से भरा है, हृदय मेरा,
देख कर, यह मर्मभेदी पतन तेरा।
पर बताओ, क्या करूँ, कैसे बचाऊँ,
धर्म के पथ पर, तुम्हें कैसे चलाऊँ।।
(27)
कर रहे हो, अरे! तुम विश्वास अब जिस शक्ति का,
साथ देगी छोड़, निश्चित, देखकर तुमको थका।
और, हो असहाय, सोचोगे, न कुछ मैं कर सका,
व्यर्थ में सम्पूर्ण जीवन हाय! मेरा यों पका।।
(28)
परमुखापेक्षी हुए हो, आज तुम क्यों?
शक्ति अपने हाथ की, तुम खो चुके क्यों?
मान जाओ, अभी भी, बिगड़ा नहीं कुछ,
अन्त तक जो सम्भल जाये, वह सभी कुछ।।
(29)
आज तुम सर्वस्व अपना गवाँ कर भी,
उसी भौतिक शक्ति को ही, शक्ति, अपनी मानते हो,
प्रलयकारी नृत्य को, नित देखकर भी,
परम शान्त, तटस्थ, मुनि सम दीखते हो।।
(30)
नगर तो अब, नर्क ही साक्षात हैं,
शान्त जीवन के लिये, अभिशाप है।
व्यर्थ का संघर्ष, जीवन खा रहा,
सभ्यता का ढोंगकर, दुख पा रहा।।
(31)
क्या यही है सभ्यता? तू जिसे पा इठला रहा,
नाशकारी मशीनों के मध्य में, तू गा-रहा।
शान्त अपना चित्त करके, सोच तू क्या कर रहा!
आज अपनी शान्ति खोकर, पेट ज्यों त्यों भर रहा।।
(32)
जगत का संहार कर ही, शान्ति लोगे,
क्या नहीं निज दुष्टता से तुम रुकोगे।
अरे! तुमको, नियति ने ही आज भेजा,
आज, मानव मात्र को तू शुद्ध कर जा।।
(33)
प्रकृति पर वश प्राप्त करना, सरल है क्या!
शान्त जीवन प्राप्त करना, सरल है क्या!
तुच्छ आविष्कार करके, मान बैठे स्वयं को हो ईश,
प्रकृति के स्वामी हुए हो, और अब क्या शेष।।
(34)
किन्तु, मेरी समझ में तुम भ्रमित होकर,
प्रकृति के स्वामित्व से अब दूर हो।
आज तुम सब भाँति उसके दास होकर,
सहज निज सारल्य से, अब दूर हो।।
(35)
ऐ मेरे मिट्टी के पुतले!
क्यों न आज तू हो प्रबुद्ध, सच बातें ही ले।।
शुद्ध वायु सेवन से सबकाा जीवन सदा स्वस्थ रहता है;
किन्तु आज पेट्रोल हवन से, कहीं शुद्ध वह रह सकता है।।
तरह-तरह के घृणित रोग बढ़ने का कारण।
समझ सको तो आज समझ लो, नहीं अकारण।।
जहाँ हो रही शुद्ध वायु भी तुमको दुर्लभ,
खैर नहीं है, आज तुम्हारी, इस पृथ्वी पर।।
(36)
होश अपना गवां बैठे आज हो,
जानकर, कुछ आज भौतिक सत्य।
मत करो, उपयोग उनका इस तरह,
नष्ट हो, जिससे न यह जंग बेतरह।।
(37)
तुम नहीं हो तुच्छ, अपनी शक्ति समझो,
ईश के तुम अंश हो, निज रूप परखो।
ज्ञान का उपयोग करना, ठीक होता है तभी,
हो सके, कल्याण जग का, सुखी होवें जब सभी।।
(38)
मूर्खता निज कर्म की, यदि जानना तुम चाहते हो,
जरा जा, कुछ बड़े नगरों में विचर लो।
अप्राकृत जीवन बिताते हुए, मानव जी रहा है,
और दुःखातप्त हो, निज अश्रुओं को पी रहा है।।
(39)
एक क्षण के लिये भी यदि, वह दुचित्ता हो गया,
पड़ गया वह राजपथ पर माँस का बन लोथड़ा।
हाय! ऐसी दुर्दशा में भी, सुखी तू लग रहा,
जूँ नहीं है रेंगती तब कान पर, है यह दशा।।
(40)
क्या उचित है इस तरह से प्राण खोना?
और फिर सन्तप्त हो, हो, दग्ध होना।
विश्व को तुम चाहते हो, नष्ट करना,
इसी से, हो मुग्ध, करते यन्त्र रचना।।
(41)
हो रहे, अब रोज ही हैं प्लेन क्रैश,
लड़ रही हैं ट्रेन, ट्रक और लारियाँ, सर्वेश!
लोक रचना का, प्रभो! क्या यही था उद्देश्य!
नाश का अभियान लेकर चल पड़ा यह लोक।।
(42)
ऐ मशीनों! हो रही हो प्राण हर्ता,
तुम्हीं से तो सकल जग है प्राण खोता।
मूल्य जीवन का हुआ, अब आज सस्ता,
क्योंकि तुम हो, आज, जग निर्माण कर्ता।।
(43)
हर तरफ, संहार ही संहार होता नजर आता।
हर तरफ, विध्वंस का ही दृश्य आँखों को सताता।
आज करबी की तरह, नर और पशु हैं कट रहे।
और, करुण पुकार से, वे वायु मण्डल भर रहे।।
(44)
कौन सुनता है! सभी मदहोश हैं,
पहुँचना है, एक घण्टे में चाहें।
भले ही, वे मार्ग में ही धूल हों,
और, उनकी हड्डियाँ सब चूर हों।।
(45)
अरे! इस दयनीय स्थिति में पड़े हो,
किन्तु अपनी मूढ़ता पर तुम अड़े हो।
अभी उस दिन, गाड़ियाँ दो लड़ गईं थी,
पटरियों पर सैकड़ों लाशें पड़ीं थीं।।
(46)
उस भयानक दृश्य का वर्णन सुनोगे,
मूर्ख मानव कर्म पर सन्तप्त होगे।
अरे! वह संहार लीला, कल्पना में जान लो,
और इसको रोकने की आज मनमें ठान लो।।
(47)
एक ही क्षण में बनी तकदीर बिगड़ी,
हाय! क्या, क्या, कल्पनाएं चल रही थीं।
सोचता था पुत्र, जाकर, पिता-सम्मुख,
करूँगा निज शक्तियों का, मैं प्रदर्शन।।
(48)
पुत्र की यह मधुर अभिलाषा न पूरी हो सकी,
पिता की अपलक प्रतीक्षा, हा! अधूरी ही रही।
एक ही घटना नहीं है जान लो तुम,
एक ही छलना नहीं है मान लो तुम।।
(49)
पिता अपने पुत्र, माता लाल को,
और पत्नी, पति रही है खो।
समय से ही पूर्व होकर काल कवलित,
व्यक्ति अपने प्राण से ही, हाथ बैठा धो।।
(50)
आज बन्दर को मिला है अस्तुरा,
क्यों न काटे नाक अपनी, वह भला।
मूर्ख मानव! आज तुम बन्दर हुए हो,
यन्त्ररूपी अस्तुरा पकड़े हुए हो।।
(51)
नाक अपनी काट कर ही, शान्त होगे,
सभ्य होकर, सभ्यता के पास होगे।
रूप शायद तभी निखरेगा तुमहारा,
जबकि सारा विश्व होगा-बेसहारा।।
(52)
मान जाओ, अभी कुछ सौ वर्ष बीते,
हो गये निज शक्तियों से अभी रीते।
अभी शायद, बिगड़ कर भी संभल जाओ,
और खोई शक्तियों को पुनः पाओ।।
(53)
प्रकृति के वरदान से, तुम हो अपरिचित,
इसलिये ही स्वास्थ्य से हो आज वंचित।
प्रकृति की अवहेलना, तुम मत करो,
यन्त्रबल को, शक्ति भर तुम कम करो।।
(54)
अरे! पशु भी, आज सुख से फिर रहे,
किन्तु, तुम हो, व्याधियों से घिर रहे।
प्रकृति दण्डित कर रही है, आज तुमको,
क्योंकि खण्डित कर रहे हो, आज उसको।।
(55)
दंड पाकर भी, हुए हो, आज बेसुध,
घोर अपने पतन में भी, पा रहे सुख।
बुद्धि का उपयोग, कुछ भी तो करो,
प्रकृति सत्ता से अरे! कुछ तो डरो।।
(56)
अभी आधी आयु भी बीती नहीं,
इन्द्रियाँ निज शक्ति से वंचित हुईं।
अरे! यौवन काल में ही शक्तियाँ खो,
प्रकृति की अवहेलना कर, रहे हो, रो।।
(57)
प्रकृति का सामीप्य पाने के लिये,
और सुख से आज जीने के लिये।
त्याग दो इन कृत्रिम यन्त्रों को,
विश्वहित जिसमें न जाये सो।।
(58)
आज मानव मोह से है छटपटाता।
समझ में उसके नहीं कुछ आज आता।
आज फंसकर जाल में वह फड़फड़ाता।
पड़ा है, व्यामोह में, कुछ खोजता सा।
(59)
सभ्यता की चरम सीमा पर पहुँच कर,
आज तुम पशु कोटि से भी निम्न हो।
बुद्धि की अन्तिम शिखा पर पहुँच कर,
आज कीट पतंग से भी तुच्छ हो।
(60)
जरा सी भी बुद्धि से यदि काम लो,
वस्तु स्थिति अगर निज सम्मुख करो।
आज, मानव तुच्छ क्यों है! जान लोगे,
और उसकी नीचता पहचान लोगे।।
(61)
एक ही आकाश पृथ्वी मध्य,
रह रहे हो, आज तुम पशु संग।
किन्तु तुम हो व्याधियों से ग्रस्त,
और वे रहते सदा हैं स्वस्थ।।
(62)
खुल रहे हैं रोज लाखों दवाखाने,
बढ़ रहे हैं रोग ऐसे, जो न जाने।
बढ़ रही संख्या मरीजों की निरंतर,
आज स्थिति हो उठी अत्यन्त दुस्तर।।
(63)
प्रकृति के अनुकूल चलना मात्र मानवधर्म है।
भूलते, यदि नियम उसके, यह महा दुष्कर्म है।
मानवेतर सभी प्राणी प्रकृति के अनुकूल हैं।
इसलिये ही व्याधियों से दूर हो, उत्फुल्ल हैं।
(64)
किन्तु तेरी दुष्टता से सभी होंगे नष्ट,
कर दिया है, आज तूने हा! सभी कुछ भ्रष्ट।
आज जल, थल, वायुमण्डल हो चुके विषयुक्त,
इसलिये ही व्याधियों से सभी हैं अब युक्त।।
(65)
जहाँ पहले अग्नि में घृत होम होता,
वहाँ अब पैट्रोल जल कर शक्ति देता।
जहाँ पहले कीट नाशक तत्व जलाना धर्म था,
वहाँ अब विषयुक्त तत्वों को न जलाना धर्म है।
(66)
यन्त्र का निर्माण करके, बुद्धि का परिचय दिया है,
शक्ति थोथी दिखा करके, जग चमत्कृत कर दिया है।
पर न तुम यह समझ बैठो, विश्व के मालिक तुम्हीं हो,
कर रहे हो वही, जितनी शक्ति तुमको मिल चुकी है।।
(67)
हर युगों में व्यक्ति ने निज शक्ति का परिचय दिया है,
कर अनेकों कार्य अद्भुत, वह चमक कर, छिप गया है।
आज तुम तो शक्ति का डटकर अपव्यय कर रहे हो,
ईश के वरदान का तुम लाभ अनुचित भर रहे हो।।
(68)
यन्त्रवादी प्रथा का संयमन होना चाहिये,
शक्ति के इस अपव्यय से, तुम्हें बचना चाहिये।
निज करों से कार्य करना आज सीखो,
यन्त्र द्वारा कार्य करना, आज-भूलो।।
(69)
उन्हीं कार्यों में, केवल तुम साथ मशीनों का लो,
जिनको करने में तुम पाते, अपने को अशक्त हो।
आज बुद्धि के साथ हृदय भी अब जागृत हो,
क्योंकि कार्य को न पा, व्यक्ति मरता है भूँखों।।
(70)
आज कलात्मक अभिरुचि का है, नाश कर दिया तुमने,
यन्त्रवाद! है आज, कला का नाश कर दिया तुमने।
व्यक्ति गया है भूल अरे! गाफिल हो, सब गुण अपने,
और मशीनी ताकत पर अर्पित कर रक्खे सपने।।
(71)
एक नहीं सैकड़ों यहाँ जानी बाकर हैं,
किन्तु पिक्चरों के कारण वे नहीं नजर हैं।
इन्हीं मशीनों के कारण ही, एक व्यक्ति उठ जाता,
और अनेकों के गुण पर भारी पत्थर पड़ जाता।।
(72)
आज व्यक्ति की रुचि का जड़ से नाश हो गया।
और अरे! सिम्मी नरगिस में आज खो गया।
आज नष्ट हो गईं, सभी ड्रामा कम्पनियाँ।
आज अरे! गायन, अभिनय से छूटी दुनियाँ।।
(73)
अभी समय है, नाश तुम्हारा बच सकता है,
मानवता संहार, अभी भी टल सकता है।
अगर चाहते, अपनी सत्ता रखना आज सुरक्षित,
करो न तुम अब देर सजग हो जाओ, बनो परीक्षित।।
(74)
कोल्हू का कड़ुवा तेल, और घर की चक्की का आंटा,
यही आज भी, इस समाज में अच्छा माना जाता।
अरे बाबले! बात गलत हो, तो आकर समझा जा,
सभी वस्तुएँ हाथों की ही रखतीं तुझको ताजा।।
(75)
था चर्खे पर कतता सूत और बनता करघे पर कपड़ा,
हर जगह मिलों को खोल, जुलाहों को तुमने घर पटका।
हस्त निपुणता से वंचित कर, नष्ट कर दिया उनको,
स्वाभिमान से जो जीते थे, आज फिर रहे सड़कों।।
(76)
एक जगह पर जमा हो रहा अर्थ करोड़ों,
और भुखमरी फैल रही, अब, कोनों कोनों।
अर्थ विकेन्द्रीकरण, अगर अब शीघ्र न होगा,
तो सच मानो, विश्व तुम्हारा नहीं बचेगा।।
(77)
शीघ्रता से कार्य करना काम है शैतान का,
आज जल्दी मचा करके, क्या हुआ तुझको नफा।
आज, इस संघर्ष में तू पिस न जाये,
आज जीवन दीप यों ही बुझ न जाये।।
(78)
आज भूतल की समस्याएँ, अरे! निपटा न पाये,
चन्द्रतल पर पहुँच, अब निज बुद्धि की लेते बलाएंँ।
अर्थ, श्रम और समय का कर नाश, आज हो विक्षिप्त,
चाहते हो नापना, तुम अब सभी नक्षत्र, होकर लिप्त।।
(79)
यन्त्रवादी शक्ति की है एक सीमा,
चाहते तुम उसी पर हो आज जीना।
कर न पाओगे अगर तुम आयु पर वश,
अन्य लोकों पर भला, क्या चलेगा वश।।
(80)
बुद्धि क्या ही पा चुके हो, तुम विलक्षण।
क्यों न जाओ भूल मद में निज प्रवर्तक।
अरे! सोचो! क्या कभी मछली रही है भूमि पर,
रह सकोगे, क्या कभी तुम, अन्य लोकों पर निडर।
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तृतीय सर्ग
-ः वर्गवाद:-
‘‘वर्गवाद! तुम आज छा गये हो इस जग पर,
घृणा, द्वेष, उत्पात, अमंगल का अब जाल बिछाकर।
लूट रहे हो हाय! विश्व की मानवता को प्रति पल,
कुछ को दे धन का बल, बहुतों को किया अकिंचन।।’’
(1)
यन्त्रवाद! तेरी सत्ता ही वर्गवाद को लाई,
आह! भर दिया द्वेष, द्रोह, टूटी है आज इकाई।
अरे! भेद तो विश्व धर्म है, इसमें नहीं बुराई,
किन्तु आज है, व्यक्ति व्यक्ति में तूने आग लगाई।।
(2)
आज बंट बये, मानव सारे, दो वर्गों में,
दुःख पा रहे अधिक, और कुछ ही हैं सुख में।
नहीं अधिक दिन चल पायेगी यह दुर्वस्था,
क्योंकि हो चुकी मानव की दयनीय अवस्था।।
(3)
बिना श्रम किये प्रति घण्टे पर, कुछ पाते हैं लाखों,
श्रम करके भी किन्तु अधिकतर रहते भूँखों।
मानव में यह भेद, सहन, क्या हो सकता है!
अरे! घोर अन्याय कभी क्या चल सकता है!
(4)
बहुुतों को छत भी दुर्लभ है, कुछ रहते महलों में,
इतना बड़ा फर्क जन, जन में, रहा किसी भी युग में!
पुडिंग खा रहा डाॅग, किन्तु यह जन भूँखा फिरता है,
शक्ति आ गई कुछ हाथों में, यह रोता फिरता है।।
(5)
अरे! आधुनिक युग को सभ्य बताने वालों!
अरे! पतित मानव को राह दिखाने वालों!
यही सभ्यता है! जिस पर तुम इठलाते हो।
जहाँ खा रहा एक, दूसरा देख रहा रो।।
(6)
बहा रहे तुम अर्थ व्यर्थ में,
जैसे हो वह पानी।
किन्तु तुम्हारे बन्धु मर रहे,
कह निज दुःखद कहानी।।
(7)
अरे! अर्थ को अनुचित ढंग से, पाने वालों!
देख, निर्धनों की हालत को, अब तो होश सम्भालो।
कब तक छीन सकोगे, उनके आगे परसी थाली?
स्वयं चेत जाओ, तो अच्छा रहे, न हो बर्बादी।।
(8)
किन्तु मानोगे नहीं तुम इस तरह,
व्यर्थ में ही कर रहा हूँ मैं जिरह।
भोगता जो दूसरे का अर्थ अर्जित,
नष्ट होती बुद्धि उसकी, ज्ञान होता लुप्त।।
(9)
अरे! बता दो, कौन बात है, तुममें ऐसी,
श्रमिकों में तुम नहीं पा रहे बातें वैसी,
तुम खाओ, तुम रहो, चलो तुम सुख से,
वे खायें, वे रहें, चलें वे, मरे दुःख से।।
(10)
तुम्हें खुदा ने खुशियाँ ही, बस! यहाँ मनाने भेजा,
और उन्हें दुःख दर्द झेलने और तरसने को हा!
यही मान, कर के ही तो, तुम हुए मस्त हो,
चूस चूस कर रक्त दीन का, नहीं तृत्त हो।।
(11)
हो गये आज तुम हृदयहीन,
अपने ही सुख में पूर्ण लीन।
ऐ धनाधिपति! तुम गये भूल,
अपनों को ही तुम हुए शूल।।
(12)
फुटपाथों पर वे बिलख रहे,
चाहें गर्मी हो या सर्दी।
तुम देख रहे निश्चिन्त खड़े,
अपनी हठधर्मी को पकड़े।।
(13)
देख रहा है जगत पिता, अन्याय तुम्हारा निर्मम।
अरे! कर दिया है तुमने, इस जग में ऐसा व्यतिक्रम।
देख रहे क्या नहीं, हो रहा है क्रोधित वह,
आज नाश करने को जग का, है प्रस्तुत वह।।
(14)
देख रहे हो, नहीं अरे क्या,
गोद लिपटता कुत्ता?
किन्तु द्वार पर खड़ा भिखारी,
मांग रहा है टुकड़ा।।
(15)
और उसी के सम्मुख ही,
है दूध पी रहा कुत्ता।
देख रहे हो तुम मस्ती से,
न वह पा सका टुकड़ा।।
(16)
अनाचार की, हाय! एक होती है लेखा।
किन्तु व्यक्ति है लांघ चुका वह लक्ष्मण रेखा।
जिसे पार करने का, रावण ऐसा भौतिकवादी,
कर न सका साहस, छल करने की उसने ठानी।।
(17)
समझ रहे हो आज स्वयं को, तुम बलशाली,
भौतिकवादी शक्ति डंटी है, करने को रखवाली।
करो न तुम, विश्वास शक्ति का, वह कब अपनी?
कहीं जरा भी चूके, तो बन जायेगी तब चटनी।।
(18)
बिना कुछ किये, बैठे-बैठे, तुमने खाना सीखा।
डाट सुनाना श्रमिक वर्ग को, और अकड़ना सीखा।
भूल गये, तुम क्रान्ति फ्रांस की, अरे! अभी ही,
और ज़ारशाही भी तुमने शीघ्र विस्मरण कर दी।।
(19)
अरे! खोल तुम विगत काल के पृष्ठों को अब देखो,
खून चूसना छोड़, रक्त से, अब मत होली खेलो।
जितने ही तुम लाल हो रहे, उतने ही वे पीले,
छिप न सकोगे, हाथ तुम्हारे हुए, खून से गीले।।
(20)
बुद्धि विमोहित हुई देखकर, मुझे तरस आता है।
एक दूसरे को धोखा दे, व्यक्ति सुक्ख पाता है।
भेद मानना, उचित शक्ति में, सदा प्रकृति सम्मत है,
किन्तु सभी बातों में करना भेद, निरा बचपन है।।
(21)
आज, अब तो यन्त्र बल की धूम है,
अन्य बल को बल समझना भूल है।
जो किये अधिकार इस पर वहीं है अब शूर,
शक्ति बल और बुद्धि बल, सब हो गये हैं चूर।।
(22)
माल सौ का बेचकर यदि,
लाभ दस का, कर लिया।
न्याय संगत, बात है यह,
क्या बुरा तुमने किया।।
(23)
तूल शुद्ध कर मशीन तुमने अगर खरीदी,
तो अनेक धुनों की रोटी बरबस छीनी।
घूम रहे हैं, द्वार, द्वार पर, वे बेचारे बिना काम के,
और पा रहे, लाखों रुपये, तुम हो बैठे ठाले।।
(24)
हर मशीन में ज्यादातर तुम यही बात पाओगे,
छीन हाथ के कार्य सभी, इसने है वर्ग बनाये।
जो पा गये मशीन, हो रहे दिन प्रति दिन हैं मोटे,
जो रह गये बिना इसके, वे होते जाते दुबले।।
(25)
राष्ट्रों का प्रश्न हो या व्यक्तियों का,
हर जगह पर, वर्ग इसने कर दिये।
राष्ट्र, केवल, वही अब सम्पन्न हैं,
यन्त्र का जो मन्त्र करते सिद्ध हैं।।
(26)
यन्त्रबल से हीन, राष्ट्रों को निरंतर,
लौह देकर, ले रहे वे, स्वर्ण केवल।
हो रहे हैं, राष्ट्र ऐसे, आज धन से हीन,
ताकते हैं, उन्हीं का मुख, आज होकर दीन।।
(27)
यन्त्रवादी सभ्यते! एक भी गुण नहीं तुममें देखता हूँ।
आज मारव बुद्धि तुमने छीन ली है, लेखता हूँ।
अरे! इस सौ वर्ष में ही हुआ कितना उलट फेर!
जो हृदय से पूर्ण थे, वे कर रहे अन्धेर।
(28)
हो सकेगा तभी, अब कल्याण जग का,
जब हृदय से छोड़ देगा, साथ इसका।
एक के, अब छोड़ने से कुछ न होगा,
सभी चाहेंगे, तभी, जग दुष्टता से मुक्त होगा।।
(29)
आज, लांघ ली है, पशुता की सीमा तुमने,
और, आज, भर ली कटुता है अपने मन में।
अरे! दूसरों का धन, तुम अब छीन छीनकर,
शोषण करते हो, तुम उनका बीन बीनकर।।
(30)
धन अर्जन करने में होता पाप नहीं है,
अगर करे कल्याण जगत का उचित तभी है।
व्यक्ति क्षुधा से व्याकुल होकर यदि सो जाये,
तो ऐसा अर्जित धन, मिट्टी, हाय! न क्यों हो जाये।।
(31)
अरे! पाप का ऐसा भीषण रूप न देखा अब तक।
साक्षी है, इतिहास विश्व का, हुआ न ऐसा अब तक।
वैज्ञानिक आविष्कारों का साथ, प्राप्त कर, और हो निडर,
आज, सभ्यता का नाटक हा! रचकर, किया जगत को जर जर।।
(32)
वर्गवाद! तुम आज छा गये हो, इस जग पर,
घृणा, द्वेष, उत्पात, अमंगल का अब जाल बिछाकर,
लूट रहे हो हाय! विश्व की मानवता को प्रतिक्षण
कुछ को दे धन का बल, बहुतों को किया अकिंचन।।
(33)
ऐसा यह उत्पात, नहीं अब चल पायेगा।
व्यक्ति, नहीं ऐसा करके, कुछ कर पायेगा।
वर्गवाद ने छिन्नकर दिया, मानवता का बन्धन,
इसीलिये तो देख रहे हो, जग में ऐसा क्रन्दन।।
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चतुर्थ सर्ग
-ः काम‘1’:-
‘‘आज पागल हो गया है विश्व सारा,
भूल वह अपनी प्रकृति है कर रहा क्या।
हाय! विकृत काम में है फंस गया,
इसलिये ही धर्म से वह हट गया।।‘‘
 (1)
हुआ मानव भ्रमित, तेरे जाल में,
अरे भौतिकवाद! तू किस चाल में!
अभी तू स्पष्ट, अपना लक्ष्य कर दे,
विश्व से सच बात, तू अब आज कह दे।।
(2)
अगर तू उद्देश्य अपना जता दे,
तभी शायद विश्व यह कुछ कर सके।
अभी तो दिग् भ्रान्त हैं सब लोग,
जान पाये हैं नहीं, वे अभी तक तब ढोंग।।
(3)
यन्त्रवादी जाल में जग को फंसाकर,
आज जाग्रत कर दिया है ‘काम’ उसमें।
नित नई इच्छा हृदय में बलवती हो,
अहर्निशि है, व्यथित करती व्यक्ति को।।
(4)
अरे! भ्रमित मानव को, तू क्यों और भ्रमित करता है?
एक नहीं सत्तर चालों से उसे आज छलता है।
आज जगा दो है, मानव में भी अब पशुता तुमने,
और कर दिया जागृत, विकृत काम सभी के मन में।।
(5)
आज इन्द्रियों के विषयों में, भूल गया जग,
देख रहा, वह होकर मोहित आज नया ढंग।
जितनी ही वह तृप्त कर रहा, निज इच्छाएँ,
उतनी ही है शान्ति खो गई, और बढ़ी आशाएँ।।
(6)
विश्व नाश के हेतु, कर दिया जग को कामी,
करना पूरा लक्ष्य तुम्हें, फिर इसमें क्या बदनामी?
भ्रष्ट कर दिया मानव को उसके सत पथ से,
आज गया है गिर, वह अपने सत्य लक्ष्य से।।
(7)
सभ्य वही हैं समझे जाते आज जगत में,
पूर्ण कर सकें, जो जितनी ही अभिलाषाएँ।
किन्तु बात क्या उचित! बताओ तुम्हीं सोचकर,
फंसकर के इस कर्मजाल में, है रहना क्या हितकर?
(8)
खाना, पीना, रहना ही क्या धर्म तुम्हारा केवल।
त्याग उच्चतम, आत्म तत्व को अरे हो रहे, पशुसम्।
जीवन के रहस्य को समझो, तभी सफल होगे तुम,
विश्वनियन्ता की इच्छा! क्या नहीं रहे-गुन?
(9)
है नहीं तू पशु अरे फिर!
मूढ़ता से क्यों रहा घिर?
बुद्धि से तू युक्त होकर,
जा रहा है अब किधर!
(10)
आज नर नारी सभी हो भ्रष्ट,
हो रहे निज कर्म से हो नष्ट।
शील को है ताक में, अब रख दिया,
अमर्यादित हो, अभी कुछ कर लिया।।
(11)
आज होकर, काम से सब मुग्ध,
दुःख में भी समझते हैं, सुख।
इस तरह से, पा सकोगे शान्ति क्या?
अगर छोड़ोगे, न निजदुर्वृत्तियाँ।।
(12)
काम से मोहित व्यक्ति समाज,
लूटता निडर निबल की लाज।
अरे! है वह, पशुओं से हीन,
हो गया है, अब बुद्धिविहीन।।

(13)
लूटता वह, अबला की लाज,
उचित है नहीं, अरे! यह काज।
आज वह होकर के अब भ्रष्ट,
कर रहा अपना जीवन नष्ट।।
(14)
अरे! खोकर, अपना सम्मान,
खेलता है जीवन से खेल।
भले ही हो जाये अपमान,
छोड़ता नहीं काम का खेल।।
(15)
वारूणी का लेकर के साथ,
वेश्याओं का कर सहवास।
छोड़कर के पत्नी का साथ,
आह! घर आता लौटे रात।।
(16)
काम से है वह आतुर आज,
नहीं है उसको इसकी लाज,
भोग लिप्सा में, हो अनुरक्त,
दूसरों के घर में आसक्त।।
(17)
काम की तृप्त न होती आग,
इसी से लुटता, अरे! सुहाग।
धर्म से आज, गया जग भाग,
काम से कर, अनुचित अनुराग।।
(18)
आज नंगा नाच होता देखकर,
हाथ जाता दौड़ अपनी नब्ज पर।
देखकर, अब आज नपती छातियाँ,
हो रहे खुश बाप, हँसती लड़कियाँ।।
(19)
सभ्यता के अर्थ, क्या समझे यही हैं?
‘दुष्टता’ के अर्थ ‘सज्जनता’ किये- हैं।
नाश का पैगाम लेकर, आ गये हो काल,
आज डस लो विश्व को तुम, शीघ्र होकर व्याल।।
(20)
आज पागल हो गया है विश्व सारा,
भूल वह अपनी प्रकृति, है कर रहा क्या!
हाय! विकृत काम में, है फंस गया,
इसलिये ही धर्म से, वह हट गया।।
(21)
चले जा रहे उसी मार्ग पर सभी बेखबर,
सही गलत का ज्ञान न होने पर भी तत्पर।
नीच कर्म करने पर भी, वे आज हैं निडर,
इसीलिये हो सभी खो रहे, होकर निश्चल।।
(22)
आज तुम लज्जा का कर त्याग,
पा सकी हो, उसका कुछ ब्याज!
अरे! खोकर निज प्राकृत रूप,
समझती हो फिर भी अपरूप।।
(23)
तुम्ही हो, विश्व सृष्टि की मूल,
गई हो, शायद यह तूम भूल।
धर्म की एक मात्र आधार,
सुनो, अब केवल आत्म पुकार।।
(24)
फिर रही हो सड़कों पर आज,
गंवा करके अपनी सब लाज।
बहाना ले समता का आज,
पहनती हो, पुरूषों का साज।।
(25)
किन्तु मत भूलो तुम यह बात,
प्रकृति से ही, तुम अबला जात।
पुरूष है वृक्ष और तुम बेल,
भूल जाओ, समता का खेल।।
(26)
कामना की केवल हो मूर्ति,
करोगी कैसे, आत्मिक पूर्ति!
विश्व को मोहित कर तुम आज,
समझती हो निज को सिरताज।।

(27)
आह! कैसी स्थिति है आज!
हो रही हैं मुग्धा बेलाज।
काम से व्यामोहित हो आज,
कर रही हैं, पशुओं के काज।।
(28)
काम से बालायें बेलाज,
अरे! खिसकाती अंचल आज।
खेलकर, कामुकता का खेल,
दिखा दी है, लज्जा को रेल।।
(29)
आज बालक भी, हो स्वच्छन्द,
दुष्टता करते हो निद्र्वन्द।
आह! अभिभावक! तब भी मस्त,
नहीं हो, हा! तुम अब भी पस्त।।
(30)
‘‘अरे! यह तो है फैशन आज,’’
यही कह देते हो, निर्लज्ज!
आह! पहना कर, चिपके वस्त्र,
भेज देते करने को त्रस्त।।
(31)
देख कर पशुता का व्यवहार,
झनझना उठते मन के तार।
गुप्त अंगों का यह व्यापार,
कर रहा है विकृत संसार।।
(32)
देखकर के, वेशभूषा मैं तुम्हारी,
क्यों न पैठा लूँ हृदय में अब कटारी।
अरे! वेश्यावृत्ति में क्यों फंस रही हो?
हाय! अपनी बुद्धि को क्यों आज बैठी खो?
(33)
नग्न अंगों का प्रदर्शन आज होता देखकर,
जानता हूँ, हुआ मानव, पशु अरे अब इस कदर।
शील, लज्जा आदि शुभ गुण, त्यागकर-हा!
आज, रक्खा पहन बाना-बेहयाई-का।।
(34)
कराते हो तुम भ्रष्टाचार,
मुग्ध बच्चों को कर लाचार।
सिखाते हो खुद ही व्याभिचार,
तुम्ही हो इसके जिम्मेदार।।
(35)
आह! अभिभावक! समझो सत्य,
देख कर भी तुम सब प्रत्यक्ष,
उपेक्षा की चलते जो-चाल,
बिगड़ जायेगा, जग का हाल।।
(36)
शील को खोकर के तुम आज,
देखते हो, बच्चों का साज।
शर्म का कर के ऐसा त्याग,
क्यों न लग जाती तुममें आग।।
(37)
आज छिछोड़ी बन कर के यों तुम मत घूमों।
और न तुम अपने कर्तत्यों को ही भूलो।
अरे! तुम्हारे ही कारण तो धर्म टिका है।
रुको! न हो स्वच्छन्द इस तरह, घर किसका है।।

(38)
जो भविष्य में भाग्य जगत का निर्मित करते,
प्रथम पाठ, जीवन का, वे तुमसे ही रटते।
अरे! सहज गाम्भीर्य न छोड़ो, तुम अब अपना,
बन जायेगा हाय! नहीं तो यह जग सपना।।
(39)
बच्चों को आदर्श बनाना धर्म तुम्हारा,
अरे! कभी क्या, इस बातों को हाय! बिचारा!
मन पर वश करना तुम, बिल्कुल भूल गई हो,
साथ उन्हें ले, चल चित्रों को देख रही हो।।
(40)
इसीलिये तो भ्रष्ट हो गया है सारा जग।
अरे! बढ़ाता नहीं धर्म की ओर आज पग।
सिखा रही हो तुम, उनको अपने जो जो ढंग।
अरे! शिक्षिके! आज रंगे हैं वे तेरे रंग।।
(41)
माँ से ही बच्चा पढ़ता है पहला पाठ जगत का।
फिर क्यों करतीं, शिथिल अरे! तुम अपना डण्डा।
अगर हृदय से चाहो, तो क्या रूके न यह कामुकता।
अरे! नग्न वस्त्रों का प्रचलन, दूर न कर सकतीं क्या?
(42)
देखकर के आज यह अश्लीलता,
सोचता हूँ, क्या यही है सभ्यता!
काम ने जग को लिया है ठग,
और अपने मार्ग से है, वह हो गया है अलग।।

(43)
तुम्हारा यह अनुचित श्रृंगार,
भुलाकर सब आचार विचार।
काम को ही समझा है सार,
वही है केवल तब आधार।।

(44)
अरे! करके तुम यह व्यभिचार,
कर रही हो क्यों भ्रष्टाचार!
तुम्हीं थी सीता! दुर्गा! तुम्हीं,
आज फिर क्यों हो कुलटा बनी।
(45)
जिसे समझी हो, तुम आदर्श,
न होगा कुछ उससे उत्कर्ष।
सती सावित्री सा कर हर्ष,
दिखा दो यम तक को अपकर्ष।।
(46)
फंस गये हैं, विपदा में प्राण,
हो सकेगा कैसे अब त्राण।
करो आकर, तुम ही निस्त्राण
नहीं तो, ले लो तुम ये प्राण।।
(47)
उर्मिला का सा अनुपम त्याग,
उसी से करो, आज अनुराग।
तभी होगा जग का कल्याण,
जी उठेगा तब, जो भिन्न्रमाण।।
(48)
निखिल जग की तुम को आधार,
क्यों न मानूँ मैं तब आभार।
सृजन करने में पूर्ण सशक्त
नाश करने में, हो अनुरक्त।।
(49)
भरत सा वीर, शिवा सा धीर,
और अर्जुन सा वह रणधीर।
तुम्हीं ने दी थी, सबको शक्ति,
हुई क्यों तुमको आज विरक्ति।।
(50)
सभी हो, नैपोलियन हों या कि हिटलर,
झलकती है शक्ति तेरी ही प्रबलतर।
विश्व को सन्मार्ग पर, तुम ही लगाओ।
धर्म अपना यो न तुम, अब भूल जाओ।।
(51)
मातृ शक्ति! प्रणाम तुमको आज बारम्बार।
कर सकोगी तुम्हीं, अनुशासित, सकल संसार।
आज किस व्यामोह में, तुम हाय! फंसकर,
नाश करने के लिये, हो उठीं तत्पर।।
(52)
दया, श्रद्धा, ममता का रूप,
भूल बैठीं निज दिव्य स्वरूप।
त्याग दो, अब यह विकृत काम,
हो उठो जिससे पुनःललाम।। 
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